अजीब लोग हैं क्या मुंसिफ़ी की है
हमारे क़त्ल को कहते हैं ख़ुदकुशी की है
ये बांकपन था हमारा के ज़ुल्म पर हमने
बजाए नाला-ओ-फ़रियाद शायरी की है
ज़रा से पांव भिगोए थे जाके दरिया में
ग़ुरूर ये है कि हमने शनावरी की है
इसी लहू में तुम्हारा सफ़ीना डूबेगा
ये क़त्ल-ऐ-आम नहीं तुमने ख़ुदकुशी की है
हमारी क़द्र करो चौदहवीं के चाँद हैं हम
ख़ुद अपने दाग़ दिखाने को रौशनी की है
उदासियों को 'हफ़ीज़' आप अपने घर रखें
के अंजुमन को ज़रूरत शगुफ़्तगी की है
4 comments:
अनवर जमाल जी नमस्कार !
बहुत ही खूबसूरत रचना है
हमारी क़द्र करो चौदहवीं के चाँद हैं हम
ख़ुद अपने दाग़ दिखाने को रौशनी की है
बहुत ही खुबसूरत बात कही आपने दिल खुश हो गया !
Janaab Anwar Jamaal Saheb, aadab.
jamaane ko kisi se gurej nahin
Shumar hain dosto men, parhej nahin..
main ek qutra hoon! joshe dariya baha le jaega maaloom hai....... Apne hisse ki harquten kyun chhod doon....
Meri Aarzuon ko manzil na mili tamanno ki qashti ko sahil na mila!
Qutl karke mere maasoom armaano ka,
quatil kehta hai ke quatil na mila!
Hafeez sahab ki aur ghazalen/nazme
post karen to meharbani hogi. khas taur par "Jazeeren"
Mahtab
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