Tuesday, May 24, 2011

अल्बर्ट पिंटो को ग़ुस्सा क्यों आता है ? Part 1 (गहन विश्लेषण पर आधारित भविष्य की सुरक्षा का उपाय बताती एक प्रतीक कथा ) - Dr. Anwer Jamal

ध्यानी बहुत हिम्मत वाला था और ज्ञानी भी। वह जान चुका था कि जगत मिथ्या है और रिश्ते माया का बंधन। उसने कड़ी साधना की और अब वह मान-अपमान के भावों से ऊपर उठ चुका था। सभी दर्शन उसके नित्य व्यवहार में समा चुके थे। वंश चलाने के लिए उसने विवाह तो कर लिया लेकिन उसके विचारों में कोई परिवर्तन न आया।
एक रोज़ वह अपनी नई नवेली पत्नी सत्या को साथ लेकर ससुराल पहुंचे तो बस से उतरते-उतरते रात हो गई और बस स्टैंड पर कोई रिक्शा वग़ैरह भी न था। घर वहां से 2 किमी. दूर था। रास्ता कम करने के लिए ध्यानी जी बाग़ से होकर गुज़रने लगे तो ज़ेवरों से लदी उनकी पत्नी डरते-डरते बोली -‘कहां जाते हो जी, कोई गुंडा बदमाश मिल गया तो ?’
‘अरे मूर्ख, अल्पविश्वासी स्त्री ! क्या तू नहीं जानती कि तू किसके साथ जा रही है ?‘-ध्यानी जी ने अपनी भोली पत्नी को लताड़ा।
‘किसके साथ जा रही हूं मैं ?‘-वह सचमुच ही भोली थी।
‘अपने पति के साथ, जो किसी भी चीज़ से नहीं डरता। तू भी निर्भय होकर चल।‘-ध्यानी जी ने आत्मविश्वास के शिखर से कहा।
‘आपको भला डर क्यों नहीं लगता ?‘-पत्नी ने उत्सुकता से पूछा तो रास्ता काटने की ग़र्ज़ से ध्यानी ने उसे बताना शुरू किया-‘क्योंकि मैं जान चुका हूं।‘
‘आप क्या जान चुके हैं ?‘-भोली ने बड़े भोलेपन से पूछा।
‘जो तू नहीं जानती।‘-ध्यानी ने फिर बताया।
‘मैं क्या नहीं जानती स्वामी।‘
‘शाश्वत सत्य, विधि का विधान और प्रकृति का नियम। इनमें से तू कुछ भी नहीं जानती।‘
‘आप बताएंगे तो मैं भी जान ही जाऊंगी स्वामी।‘
‘तो सुन। जो कुछ है सब एक ब्रह्म ही है। सारी सृष्टि में वही व्याप रहा है, वही भास रहा है। यह अलग है वह अलग है, यह भला है वह बुरा है। यह सब मन का वहम और दिमाग़ का फ़ितूर है। हम यहां वही काट रहे हैं जो हमने पिछले जन्मों में किया है। यहां जो भी हुआ अच्छा हुआ और जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। सब कुछ प्रारब्ध और संचित कर्मों का फल है जो भोगे बिना क्षीण नहीं हो सकता।‘-ध्यानी ने ज्ञान के मोती अपनी पत्नी पर लुटाने शुरू कर दिए।
‘स्वामी क्या कर्मों के फल से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है ?‘
‘है क्यों नहीं लेकिन जो उपाय है, उसे करना हरेक के बस में नहीं है। कर्म करते समय उसमें लिप्त न होओ और अपने आस-पास की घटनाओं को भी मात्र साक्षी भाव से देखो। अपने अहं को शून्य कर लो, मानो कि तुम हो ही नहीं। अपने मन को हरेक बंधन और हरेक भाव से मुक्त कर लो तो फिर कर्मों के फल से ही नहीं जन्म-मरण के चक्र से भी मुक्ति मिल जाएगी।‘-ध्यानी ने अपनी पत्नी को बताया और अभी वह कुछ और भी बताने जा रहा था कि अंधेरे में से एक-एक करके 5 हट्टे-कट्टे बदमाश अचानक ही प्रकट हो गए। उनके चेहरे भी ठीक से नज़र नहीं आ रहे थे।
‘दर्शन नाम है मेरा, दर्शन, समझा क्या ? यहां अपना राज चलता है।‘-एक ग़ुंडे ने अपना चाक़ू ध्यानी की गर्दन पर रखकर उसे डराना चाहा लेकिन ध्यानी की आंखों में डर का कोई भाव न आया। वास्तव में ही वह सिद्धि पा चुका था।
‘तू यहीं रूक।‘-ग़ुंडे ने उससे कहा और उसके चारों तरफ़ अपने चाक़ू से एक गोल घेरा खींच दिया।
‘ख़बरदार, जो इस घेरे से अपना पैर बाहर निकाला तो ...।‘-ग़ुंडे ने उसे धमकाया लेकिन वह साक्षी भाव से सारी घटना को देखता रहा और सोचता रहा कि जो भी हो रहा है अच्छे के लिए ही हो रहा है। वह वहीं खड़ा रहा और फिर पांचों ग़ुंडों ने उसकी पत्नी को वहीं दबोच लिया, बिल्कुल उसके सामने ही। उसकी पत्नी चिल्लाई, रोई और गिड़गिड़ाई लेकिन उन ग़ुंडों को उस पर कोई तरस न आया और न ही ध्यानी ने बदमाशों का विरोध किया। ज्ञानियों के रहते जो हश्र भारत का हुआ, वही सत्या का भी हुआ, ध्यानी के सामने ही। एक-एक मिनट उसे एक-एक सदी जैसा लग रहा था और घंटे भर बाद जब पांचों ने उसे छोड़ा तो उसे ऐसा लगा जैसे कि उसे पांच हज़ार साल बीत चुके हों। रोते-सिसकते हुए उसने अपने बाल और अपने कपड़े दुरूस्त किए और फिर लड़खड़ाते हुए वह एक पेड़ का सहारा लेकर खड़ी हो गई। तभी एक ग़ुंडे ने सत्या के ज़ेवर उतारने शूरू कर दिए।
‘नहीं उसके ज़ेवर मत लूटो बेवक़ूफ़।‘-दर्शन ने उसके सिर पर चपत जमा कर कहा।
‘क्यों उस्ताद ?‘-उसके चमचे ने पूछा।
‘ज़ेवर औरत की जान होती है मूरख। उसके बिना वह मर जाएगी।‘-उसने राज़ की बात बताई।
‘आप कितने दयालु हैं उस्ताद ! जय हो।‘-चेला नारा लगाते हुए पीछे हट गया और एक-एक करके वे पांचों फिर अंधेरे में ही समा गए।
उनके जाने के बाद सत्या दौड़कर ध्यानी से लिपट गई और दहाड़ें मार मारकर रोने लगी। अचानक ही ध्यानी ठहाके लगाकर हंसने लगा। वहां अजीब मंज़र था, पत्नी बुरी तरह रो रही थी और उसका पति बेतहाशा हंसे जा रहा था। ध्यानी इसी हाल में अपनी पत्नी को सहारा देकर बाग़ से बाहर ले आया।
रास्ते में जूस की दुकान नज़र आई तो ध्यानी उस पर रूक गया। यह दुकान अल्बर्ट पिंटो की थी। ध्यानी ने अल्बर्ट को जूस बनाने के लिए कहा, तब तक सत्या भी कुछ आपे में आ गई थी। उसे हैरत थी कि उसके पति ने उसे बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया और फिर जब वह रो रही थी तब भी वह हंसे जा रहा था। आखिर उसने पूछ ही लिया-‘आप इतना हंस क्यों रहे थे ?‘
‘मैंने, अकेले ने पांच-पांच ग़ुंडों को मूरख बना दिया। बड़ा घमंड दिखा रहे थे अपनी ताक़त का लेकिन उन्हें पता भी नहीं चला।‘-ध्यानी ने अपने हुनर की तारीफ़ की।
‘आपने ग़ुडों को कब और कैसे मूरख बना दिया ?‘-सत्या हैरान थी।
‘सत्या ! तुम्हें याद है कि दर्शन ने मुझे धमकी दी थी कि मैं घेरे से पैर बिल्कुल भी बाहर न निकालूं ?‘-ध्यानी ने पूछा।
‘हां, उसने कहा तो था।‘
‘बस, जब वे सारे तुम्हारे पास थे तो मैंने चुपके-चुपके कई बार अपना पैर घेरे से बाहर निकाला था और उन मूरखों को कुछ भी पता न चला। मैं इसीलिए हंस रहा था।‘-ध्यानी ने बताया और सत्या ने सुनकर अपना माथा पीट लिया।
अल्बर्ट पिंटो भी ज़्यादा दूर नहीं था। सत्या का हाल देखकर अंदाज़ा तो उसे भी हो गया था कि उस पर क्या बीती होगी लेकिन अब उसने सब कुछ सुन भी लिया था और उसके दिमाग़ की नसों में तनाव और ग़ुस्सा समाने लगा। ध्यानी विजयी मुस्कान के साथ जूस पीने लगा और अल्बर्ट पिंटो को भरपूर ग़ुस्सा आने लगा।     (...जारी)
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इस कहानी की पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें :

उसे हंसी आ रही है और मुझे रोना / यहाँ  देखिए एक से एक नमूना

Saturday, January 29, 2011

मेरे जितने विरोधी हैं , उनमें से कोई एक भी इस कलाम को हल करने की ताक़त नहीं रखता The challenge

कलाम ए हाली
दर्दे दिल को दवा से क्या मतलब
कीमिया को तिला से क्या मतलब

चश्मा ए ज़िंदगी है ज़िक्रे जमील
ख़िज़्रो आबे बक़ा से क्या मतलब

बादशाही है नफ़्स की तस्ख़ीर
ज़िल्ले बाले हुमा से क्या मतलब

गरचे है रिन्द दामने आलूदा
हमको चूनो चरा से क्या मतलब

जो करेंगे भरेंगे खुद वाइज़
तुमको हमारी ख़ता से क्या मतलब

काम है मरदुमी से इंसां की
ज़ोहोदो इत्क़ा से क्या मतलब

नकहते मै पे जो ग़श हैं ‘हाली‘
उनको दुर्दो सफ़ा से क्या मतलब


यह कलाम हमें जनाब हकीम ज़मीरूद्दीन अहमद सलीम तुर्क मावराउन्नहरी साहब ने बतारीख़ 24 जनवरी 2011 को सुनाया तो हमने फ़ौरन उनसे इसे अपनी डायरी में तहरीर करवा लिया और अब आपके सामने बग़र्ज़े इम्तेहान पेश है। मेरे जितने विरोधी मेरी समझ पर अक्सर सवाल खड़े करते हैं। उनमें से कोई एक भी इस कलाम को हल करने की ताक़त नहीं रखता। अगर कोई रखता है तो वह सामने आए।
जो मेरा विरोधी नहीं है, वह आराम से इसका लुत्फ़ ले। हर चीज़ समझ आना ज़रूरी भी नहीं है। कुछ चीज़ें रहस्यमय रहें तो अपना आकर्षण बनाए रखती हैं।
इस कलाम को हल करने के लिए मैं कुछ दिन बाद खुद किसी उर्दू दां ब्लागर से दरख्वास्त करूंगा। तब तक आप सब्र रखें और बेवजह मेरा विरोध करने वालों के ज्ञान की हक़ीक़त देखें।
ख़ास तौर पर डा. श्याम गुप्ता जी के इल्मो-फ़ज़्ल को देख लें क्योंकि वे कहते हैं कि उन्हें
पता है। शायरी की समझ का दावा भी वे बेमौक़ा किया करते हैं। 
अब मौक़ा है, अब वे सामने नहीं आएंगे, ऐसा मुझे यक़ीन है।
पहाड़ यहां क़ायम कर दिया गया है, देखें कौन इसकी चोटी पर अपना झंडा फहराने में कामयाब होता है ?

Friday, January 28, 2011

हमारे खेत में सरसों आज भी उगती है The gift

 वंदना गुप्ता जी के ब्लाग पर एक दिन जाना हुआ तो उनकी एक सुंदर रचना पर नज़र पड़ी, जिसमें वे पूछ रही थीं कि अब खेत में सरसों कहाँ उगती है ?
हमने कहा कि ‘हमारे खेत में सरसों आज भी उगती है . मैं आप को जल्दी ही सरसों का फोटो भेंट करूँगा .'
तब से जब भी सरसों के खूबसूरत फूलों पर, उसकी लहलहाती फ़सल पर नज़र पड़ती थी तो दिल चाहता था कि उन्हें यह हरा-पीला मंज़र दिखा दें लेकिन उस मंज़र को क़ैद कैमरे में कौन करे ?
आज इत्तेफ़ाक़ से हम भी थे, सरसों के फूल भी थे और मंज़र क़ैद करने वाला भी आ पहुंचा। उत्तर प्रदेश पुलिस में सेवा दे रहे ये साहब मेरे मित्र तो नहीं हैं लेकिन मिलते अक्सर रहते हैं। आज वे सम्मन तामील की ड्यूटी पर थे। अपने इलाक़े के गश्त पर थे। मैंने उनसे चंद फ़ोटो लेने की इल्तेजा की और वे राज़ी हो गए। उनकी मदद से सरसों के ये फूल अव्वलन वंदना जी को भेंट करता हूं और सानियन अपने सभी पाठकों को।
वंदना जी ! सरसों में एक रंग पीला नज़र आ रहा है और एक रंग हरा। पीला रंग क्षमा का प्रतीक है और हरा रंग समृद्धि का। यह फ़ोटो मैं आपको भेंट करते हुए अपने मालिक से दुआ करता हूं कि वह आपकी तमाम ख़ताओं को क्षमा करे, आपको हिदायत दे और आपके दिल को भी क्षमा से भर दे जैसे कि उसने इस धरती को सरसों के पीले फूलों से भर दिया है। वह मालिक आपके जीवन को हर तरह से समृद्धिशाली बनाए जैसे कि उसने इस ज़मीन को हरियाली से ढक दिया है। आपके लिए भी ऐसा ही हो और उनके लिए भी जो मेरा ब्लाग पढ़ते हैं और उनके लिए भी जो मेरा ब्लाग नहीं पढ़ते।
इस नज़ारे से लुत्फ़अंदोज़ होने के बाद इस लज़्ज़त को इसकी तकमील तक पहुंचाने के लिए हम आपको पढ़वाते हैं वंदना जी की सुंदर रचना, उनके शुक्रिया के साथ।

 अब खेत में सरसों कहाँ उगती है ?
यादों के लकवे पहले ही उजाड़ देते हैं

अब भंवर नदिया में कहाँ पड़ते हैं ?
अब तो पक्के घड़े भी डूबा देते हैं

हम वंदना जी से दरख्वास्त करेंगे कि वे हमारे प्यारे ब्लाग ‘प्यारी मां‘ में एक लेखिका के तौर पर जुडें और मां के बारे में कुछ सुंदर रचनाएं हिंदी पाठकों को दें। हम उनकी रचनाओं को ज़्यादा से ज़्यादा पाठकों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे।
मेरी ईमेल आईडी है- eshvani@gmail.com
सरसों के खूबसूरत फूल
नीले आसमान के नीचे पीले फूल सरसों के
धरती मां धानी चुनर ओढ़े हुए
फ़ोटोकार परिचित, उ.प्र.पु.

Tuesday, January 25, 2011

चाँद जागता रहा, रात हुई माधुरी Moon on the bed

चाँद जागता रहा, रात हुई माधुरी







धूप फागुनी खिली
बयार बसन्ती चली,
सरसों के रंग में
मधुमाती गंध मिली.

मीत के मन प्रीत जगे
सतरंगी गीत उगे ,
धरती को मदिर कर
महुए  हैं  रतजगे.

अंग अंग दहक रहे
पोर पोर कसक रहे,
पिय से मिलने को
रोम रोम लहक रहे.

अधर दबाये हुए
पुलक रही है बावरी,
चाँद जागता रहा
रात हुई माधुरी. 

@ डाक्टर पवन कुमार मिश्रा जी ! 'वाह' शब्द उस चीज़ के लिए बोला जाता है जो कि काबिले तारीफ़ होती है.
'वाह वाह' का मतलब है कि चाएज़ निहायत ही उम्दा है .लेकिन जिस  चीज़ कि तारीफ़ के लिए 'वाह वाह'
लफ्ज़ भी छोटा पड़ जाये और मन में उभरने वाले अहसासात को ज़ाहिर करने  के लिए  कोई लफ़्ज़ न मिले तब उस रचना की अज़्मत को और उस रचनाकार की महानता को सलाम करने के लिए कोई चीज़ भेंट दी जाती है . सबसे बड़ी भेंट है जीवन का एक अंश किसी को देना , अपना समय दे देना , जो कि एक प्रशंसक देता है अपने प्रिय कलाकार को . जीवन का अर्थ है समय  और धन प्राप्ति में भी समय ही खपाना  पड़ता  है तब कुछ मुद्रा हाथ आती है . मूल्य धन का नहीं है . मूल्य है समय का  जो कि मुद्रा में रूपांतरित हो जाता है . किसी विचार का कोई मूल्य नहीं है . मूल्य उस भाव का है जो कि एक रचनाकार अपनी रचना में प्रकट करता है , मूल्य उस भाव का है जो उसका प्रशंसक उसे भेंट करते समय अपने दिल में रखता है . मूल्य उस प्रेम का है जो रचनाकार और उसके प्रशंसकों के दरमियान होता है .
आपकी यह कविता ब्लाग जगत की ही नहीं बल्कि हिंदी साहित्य की भी  एक अनुपम कृति है . इसने मुझे अन्दर तक अभिभूत कर दिया है . अपने जज़्बात को आप पर ज़ाहिर करने कि ख़ातिर एक छोटी सी भेंट आपको प्रेषित है , उसे स्वीकार करके आप मुझे शुक्रिया का मौक़ा दें . इस अनुपम रचना को मैं अपने ब्लाग 'मन की दुनिया' पर पेश कर रहा हूँ .
धन्यवाद.

http://pachhuapawan.blogspot.com/2011/01/blog-post_20.html

Monday, December 13, 2010

ज्ञानमधुशाला (Ghazal) - Anwer Jamal

कैसे कोई समझाएगा पीड़ा का सुख होता क्या
गर सुख होता पीड़ा में तो खुद वो रोता क्या

इजाज़त हो तेरी तो हम कर सकते हैं बयाँ
दुख की हक़ीक़त भी और दुख होता क्या

ख़ारिज में हवादिस हैं दाख़िल में अहसास फ़क़त
वर्ना दुख होता क्या है और सुख होता क्या

सोच के पैमाने बदल मय बदल मयख़ाना बदल
ज्ञानमधु पी के देख कि सच्चा सुख होता क्या

भुला दे जो ख़ुदी को हुक्म की ख़ातिर
क्या परवाह उसे दर्द की दुख होता क्या

आशिक़ झेलता है दुख वस्ल के शौक़ में
बाद वस्ल के याद किसे कि दुख होता क्या

पीड़ा सहकर बच्चे को जनम देती है माँ
माँ से पूछो पीड़ा का सुख होता क्या
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ख़ारिज - बाहर, हवादिस - हादसे, दाख़िल में - अंदर
हुक्म - ईशवाणी, ख़ुदी - ख़ुद का वुजूद, वस्ल- मिलन

Friday, December 10, 2010

शुक्र और शिकायत {Ghazal} - Farookh Qaisar

अपना ग़म भूल गए तेरी जफ़ा भूल गए
हम तो हर बात मुहब्बत के सिवा भूल गए

हम अकेले ही नहीं प्यार के दीवाने सनम
आप भी नज़रें झुकाने की अदा भूल गए

अब तो सोचा है दामन ही तेरा थामेंगे
हाथ जब हमने उठाए हैं दुआ भूल गए

शुक्र समझो या इसे अपनी शिकायत समझो
तुमने वो दर्द दिया है कि दवा भूल गए