पाताल को जाती हुई हिंदी ब्लॉगिंग का गुज़र दिल्ली के एक कुएँ से हुआ तो उसे कुछ मेंढकों ने लपक लिया और ब्लॉगिंग शुरू करते ही उस पर एक छत्र राज्य की स्कीम भी बना ली । वे चाहते थे कि तमाम हिंदी ब्लॉगर्स की नकेल उनके हाथ में रहे ताकि ब्लॉगिंग में वही टिके जिसे वे टिकाना चाहें और जो उनकी चापलूसी न करे , उसे वे उखाड़ फेंके चाहे वह एक सच्चा आदमी ही क्यों न हो।
इसके लिए उन्होंने टिप्पणी को बतौर चारा इस्तेमाल किया और तय किया कि टिप्पणी को मीठी रेवड़ियों की तरह बस अपनों में ही बांटा करेंगे। इनके लालच में दूसरे लोग भी जुड़ने लगेंगे जिससे अपना दायरा और रूतबा बढ़ेगा। बढ़ता दायरा लोगों के लालच को और बढ़ाएगा और इस तरह अपना दायरा और बढ़ जाएगा। बस, तब हम होंगे हिंदी ब्लॉगिंग की तक़दीर के मालिक और हिंदी ब्लॉगर्स हमारे सामने झुके होंगे अपने घुटनों पर।अपनी ताक़त दिखाने के लिए उन्होंने ब्लॉगर्स मीट भी की और अपनी अपनी पोस्ट में सभी ने एक दूसरे को सकारात्मक और महान विचारक bhi घोषित कर दिया । सूद खाने वाले और शराब पीने वाले इन ब्लॉगर्स में कोई तो ऐसे ऐलान भी कर गुज़रा जिन्हें सुनकर स्वर्णदंत दानी कर्ण भी पितृलोक में मुस्कुरा पड़ा ।
इन सब कोशिशों के बावजूद अपने कुएं से बाहर के किसी इंसान ब्लॉगर की नकेल उनके हाथ न आ सकी । तब उन्होंने टर्रा कर बहुत शोर मचाया और सोचा कि इंसान शायद इससे डर जाये लेकिन जब बात नहीं बनी तो वे समझ गए कि 'इन चेहरों को रोकना मुमकिन नहीं है।'
इस बार भी उनसे सहमत वही थे जो उनके साथ कुएँ में थे ।
इंसान ने कुएं की मुंडेर से देख कर उनकी हालत पर अफ़सोस जताया और हिंदी ब्लॉगिंग को मेंढकों की टर्र टर्र से मुक्त कराने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया ।
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कुछ उपयोगी पोस्ट्स जिनसे करेला जा चढ़ता है नीम पर और सुहागा सोने पर
(1) ब्लॉगर्स मीट के बारे में ; बिना लाग लपेट के सुना रही हैं खरी खरी Lady Rachna
18 comments:
अभी तो लोगबाग यही समझाने में लगे हैं कि टिप्पणी के बिना ब्लॉगिंग का मतलब ही क्या है और कि जिन्हें पसंद न हो वे टिप्पणी वाला कॉलम खुद खुला क्यों रखे हुए हैं। डर यही है कि जब तक यह सब खुद लोगों की समझ में आए,तब तक कहीं हमारे बीच के कई ज़रूरी ब्लॉगर मैदान छोड़ न चुके हों।
काफी अच्छा आलेख.
मेंढक तो छह महीने के लिए हाइबरनेशन स्लीप में भी जाते हैं, लेकिन यहां...
जय हिंद...
@ आदरणीय कुमार राधारमण जी ! आपकी बात से हम सहमत हैं। इसी हक़ीक़त को इस कहानी के ज़रिये सामने लाया गया है।
आपका शुक्रिया !
@ भाई ख़ुशदीप जी ! आपने सही कहा है , एक अंतर तो सचमुच है।
आपने गहराई से सोचा , आपका शुक्रिया !
---अच्छा लिखा....
---मेंढक गर्मी में एस्टीवेशन स्लीप में भी जाते हैं सिर्फ बरसात के तीन महीने ही तो बाहर आते,टर्राते हैं ..
---किसी इंसान ब्लोगर की नकेल उनके हाथ क्या आयेगी, कोई इंसान ब्लोगर भी उनके साथ नहीं आयेगा, आ ही नहीं सकता ..इंसान उनके साथ सुर मिलाकर टर्रा नहीं सकता...उनमें इंसान बनाने की कुब्बत नहीं .... .और ....स्थिति होती है...
"उष्ट्राणाम् लग्नावेलायाम गर्दभा स्तुति पाठका |
परस्पर प्रशंशंति अहो रूप महो ध्वनि |"
बहुत ही सही कहा आपने,उन मुट्ठी भर लोगों को तमाचा मारा हैं, भाई मैं तो अपनी मर्जी का मालिक हूँ कोई सुने या न सुने मेरे ठेंगे से
bhaijaan bahtrin tnz hai or saahsik lekhan bhi aapko hardik badhaai .ramzaan bhi bahut bahut mubark ho .akhtar khan akela kota rajsthan
इंसान ने कुएं की मुंडेर से देख कर उनकी हालत पर अफ़सोस जताया और हिंदी ब्लॉगिंग को मेंढकों की टर्र टर्र से मुक्त कराने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया ।
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कितने इंसान मिले अनवर भाई?
जितनी तारीफ कि जाए इस व्यंग कि कम है.
बहुत अच्छा ज्ञानवर्धक आलेख!
ज्ञानवर्धक .....लेख
आभार....--
medhak aapas me tippani hi nahi revrion ki tarah bantte hai -ve aapas me inam bhi batte hain yatha -varsh ka sabse sahasi medhak blogar .bahut achchha vyangy .
अच्छा आलेख . आभार !
बहुत सुन्दर...बधाई
आपकी पोस्ट से पता चला कि बरसात का सीज़न है । मेंढकों की बात तो ग़ज़ब ही रही और नागपंचमी भी है। सुना है कि नाग का प्रिय भोजन मेंढक ही हैं। http://drayazahmad.blogspot.com/
अनवर भाई यह सही है कि अच्छा और सामयिक लेखन किसी कमेंट का मोहताज नही लेकिन माहौल ही हिंदी ब्लागिंग का कुछ ऐसा बना कि मैंने कई ब्लाग लेखकों को अपने लेख पर कमेंट नहीं होने से हताश व निराश होते देखा है। शायद आपके विचारोत्तेजक लेख से तसल्ली मिले। अगर आपके विचार थोड़े भी लोगों तक पहुंचते हैं तो इसे ही उपलब्धि माननी चाहिए। कमेंट देने वाले की भी जय और बिना कमेंट वाले पाठकों की भी जय।
खेमेबाज़ी कहीं भी हो,घातक है।
मेढक तो सावन में ही न..! बड़े ब्लॉगर्स तो बारहमासी..24 घंटे में किसी भी समय..कहीं भी..
कुछ कम नहीं है मुल्यांकन ?
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