Thursday, April 10, 2014

लिफ़्ट (कहानी) दूसरा भाग

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मेरी चेतना हल्के हल्के डूब रही थी। सीढ़ियों पर ढहते हुए मैंने देखा कि उस लड़की के मुंह से अब क़हक़हों के बजाय चीख़ें निकल रही थीं-‘हेल्प, हेल्प, प्लीज़ हेल्प, समवन हेल्प प्लीज़‘।
इंसान तड़पकर पुकारे और मदद न आए यह हो नहीं सकता। उसकी पुकार पर होटल के एक रूम से जो शख्स बाहर निकल कर आया वह एक चाइनीज़ था। उसके बाद एक एक करके और भी कई लोग निकल आए। उस चीनी आदमी ने फ़ौरन मेरे हाथ के दो तीन प्वांइट्स पर दबाव डाला और मेरी हालत नॉर्मल हो गई।
मैंने हैरानी से पूछा-‘यह क्या जादू है?’
चीनी आदमी ने कहा-‘दिस इज़ सु-जोक’।
मैं अपना लिबास दुरूस्त करते हुए खड़ा हुआ। मैंने उस चीनी आदमी का शुक्रिया अदा किया। उसने उस वक्त अपना पूरा नाम जो भी बताया था लेकिन अब उसमें से सिर्फ़ ‘वांग’ ही याद रह गया है। मिस्टर वांग अपने रूम की तरफ़ पलटे तो तमाम लोग भी उनके पीछे पीछे उनके रूम में ही दाखि़ल हो गए। सभी बीमार थे। आजकल दिल, गुर्दे और फेफड़ों की बीमारियां आम हैं और उनसे भी ज़्यादा मन के रोग। मन के रोग जितने जटिल होते हैं, इनका इलाज इतना ही आसान होता है।
लड़की की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू टप टप ज़मीन पर गिर रहे थे। उसका मन धुल रहा था। वह सीढ़ियों के नीचे खड़ी थी और मैं चन्द सीढ़ियां ऊपर। उसने अपनी पलकें उठाकर मेरी तरफ़ क्षमा याचना के भाव से देखा। ...यानि कि वह सेहतमंद हो चुकी थी।
मैं मुस्कुराया और उसकी तरफ़ आगे बढ़कर मैंने उसे अपना कार्ड देते हुए कहा-‘हमारे घर आना। तुम्हें अपनी बेटियों से मिलवाऊंगा। उन्हें अपनी एक नई बहन से मिलकर बेहद ख़ुशी होगी।’
उसने ‘हां’ कहने के लिए अपनी गर्दन को हिलाया। मैं लिफ़्ट की तरफ़ बढ़ गया। मैंने मुड़कर देखा तो उसके होंठो पर मुस्कुराहट खेल रही थी जबकि उसकी आंखों में आंसू अभी भी फंसे हुए से थे मगर बहना बन्द हो चुके थे। मैंने अपनी जेब से रूमाल निकाल कर उसकी तरफ़ उछाल दिया। जो हवा में लहराता हुआ ठीक उसके चेहरे पर जा चिपका।
लड़की ने रूमाल को अपने सिर पर खींच लिया। लिफ़्ट के बन्द होते हुए दरवाज़े से मैंने उस लड़की का चेहरा देखा। उसका चेहरा अब मेरी बेटियों से मिल रहा था।

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