शायद उसने क़ानून के सम्मान के लिए ही कपड़े पहन रखे थे क्योंकि सार्वजनिक जगहों पर नंगा घूमना क़ानूनी तौर पर मना है। लिफ़्ट का बटन दबाने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने घबरा कर अपना हाथ रोक लिया। उसने अपनी मंज़िल का बटन दबाकर अपना सनग्लास माथे पर अटका लिया और फिर मेरी तरफ़ देखा। वह मेरे घबराए हुए चेहरे का बग़ौर मुआयना कर रही थी।
उसके बाल, बदन और लिबास से जो मुरक्कब ख़ुश्बू (मिश्रित सुगंध) उड़कर मेरी नाक में आ रही थी। वही मेरे बूढ़े दिल की धड़कनें बढ़ा रही थीं। इस पर यह कि उसने अपने पर्स से एक छोटी सी बॉटल निकाल कर एक घूंट भी पी ली। अब उसके मुंह से व्हिस्की की गंध भी आ रही थी। शराबी नशे में किसी भी हद तक जा सकता है और इसकी हद तो बेहद लग रही थी। मुझ पर बदहवासी तारी हो गई। ए.सी. के बावुजूद मेरी पेशानी पर पसीने के क़तरे नुमूदार हो गए। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा साफ़ किया तो उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैरने लगी।
उसकी मंज़िल आने में अभी कुछ वक्त और था। उसने वक्तगुज़ारी के लिए अपना पर्स खोलकर कुछ तलाश किया। इस तलाश में हर बार वह कोई न कोई चीज़ हाथ में लेकर बाहर निकालती। जिनकी बनावट देखकर और इस्तेमाल की कल्पना करके ही मेरी धड़कनें बेक़ाबू हो रही थीं। इस तलाश में उसने अपने काम की सारी चीज़ें एक एक करके मुझे दिखा दीं। शायद यही उसका मक़सद था।
उसका पर्सं भी इम्पोर्टेड था और उसकी चीज़ें भी। पर्स बंद करके उसने एक बार फिर मुझे मुस्कुरा कर देखा। मैं समझ गया कि वह मेरी हालत से लुत्फ़अन्दोज़ हो रही है। कभी कभी लम्हे कैसे सदियां बन जाते हैं, इसका अंदाज़ा मुझे आज हो रहा था।
उसकी मंज़िल पर लिफ़्ट रूकी तो मैं भी उसके पीछे पीछे ही लिफ़्ट से निकल आया। इस जैसी क़ातिल हसीना किसी भी मंज़िल से लिफ़्ट में फिर से दाखि़ल हो सकती थी। मैं दोबारा रिस्क नहीं लेना चाहता था। मैं उसके बराबर से निकला तो उसने बड़ी अदा के साथ अपने बाल समेटे और खुलकर एक क़हक़हा लगाया। मुझे अभी 5 मंज़िल और ऊपर जाना था। मैं सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ गया। होटल की सीढ़ियां लिफ़्ट के मुक़ाबले ज़्यादा सेफ़ होती हैं।
मैं बूढ़ा हूँ, दिल का मरीज़ हूँ। सीढ़िया चढ़ना मेरे लिए जानलेवा हो सकता है लेकिन फिर भी इज़्ज़त बचाने का यही एक तरीक़ा मुझे नज़र आया। वह मुझे सीढ़ियों पर चढ़ते देखकर और ज़्यादा ज़ोर से हंस रही है। उसकी नज़र के दायरे से निकलने के लिए मैं घबराकर तेज़ तेज़ क़दम उठा रहा हूँ। अचानक मुझे अपना दिल बैठता हुआ सा लग रहा है और मेरी चेतना डूबती जा रही है। पता नहीं अब कभी आंख खुलेगी या नहीं लेकिन मेरी इज़्ज़त बच गई है। मुझे ख़ुशी है कि मैं अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और घरवालों की नज़र में शर्मिन्दा होने से बच गया हूँ।
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भारतीय नारी ब्लॉग पर हिन्दी ब्लॉगर शिखा कौशिक जी की लघुकथा ‘पुरूष हुए शर्मिन्दा’ पढ़कर हमें यह लघुकथा लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है जो एक दूसरा पहलू भी सामने लाती है। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में कितने रंग-बिरंगे व्यक्ति रहते हैं और यह कि न सभी पुरूष एक जैसे हैं और न ही सारी औरतें एक जैसी हो सकती हैं।
4 comments:
सीढ़ी कोने में खड़ी, इधर बड़ी सी लिफ्ट |
लिफ्ट लिफ्ट देती नहीं, सीढ़ी की स्क्रिप्ट |
सीढ़ी की स्क्रिप्ट, कमर में हाथ डालते |
चूमाचाटी होय, तनिक एहसास पालते |
किन्तु लगे ना दोष, तरुण की कैसी पीढ़ी |
फँसता तेज अधेड़, छोड़ देता ज्यों सीढ़ी ||
समाज में कितने रंग-बिरंगे व्यक्ति रहते हैं और यह कि न सभी पुरूष एक जैसे हैं और न ही सारी औरतें एक जैसी हो सकती हैं।
वाह क्या बात! बहुत ख़ूब!
इसी मोड़ से गुज़रा है फिर कोई नौजवाँ और कुछ नहीं
nice
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