Thursday, July 3, 2014

दज्जाल के रंगरूट

दज्जाल आया। मुल्क तबाह किए। कठपुतली सरकारें बिठाईं और चल दिया। जाने से पहले रंगरूट भर्ती किए उन्हें ट्रेनिंग दी। वे रंगरूट ट्रेनिंग पाकर पुरानी सरकार के समर्थकों को मारते, जिन्हें दज्जाल ख़ुद भी मारता रहा है। पुराने फ़ौजियों ने ट्रेनिंग पूरी करने से पहले ही रंगरूटों को मार गिराया। मरने वालों में इस फ़िरक़े के भी थे और उस फ़िरक़े के भी, इस इलाक़े के भी थे और उस इलाक़े के भी लेकिन फिर भी एक फ़िरक़े के शायद ज़्यादा थे। उस फ़िरक़े के मुज्तहिद ने दज्जाली रंगरूटों को मज़लूम शहीद घोषित कर दिया और उनके लिए अल्लाह से दुआए मग़फ़िरत की। इसी के साथ उसने फ़तवा दे दिया कि इन दज्जाली रंगरूटों को मारने वाले ज़ालिम हैं, काफ़िर हैं, इनसे जिहाद किया जाए। 
जज़्बाती अवाम फ़तवे को न मानती तो काफ़िर हो जाती, ऐसा उसके माइंड को पहले से ही कंडीशन्ड कर रखा है। सो जान बचाने के लिए भागने वाले अब ईमान बचाने के लिए मजबूरन जिहाद (?) कर रहे हैं। खुद मर रहे हैं लेकिन दज्जाल के दुश्मनों को भी मार रहे हैं। जिहाद इसलाम (?) के लिए हो रहा है और उसका फ़ायदा दज्जाल को पहुँच रहा है। 
कठपुतली सरकार ने माई बाप दज्जाल से विनती की थी कि जनाब हवाई हमलों से पुरानी सरकार के फ़ौजियों को तहस नहस कर दीजिए, चाहे इसमें अवाम पहले की तरह लाखों ही क्यों न मारी जाए।
दज्जाल ने खींसें निपोर दीं। बोला, अपना मामला खुद सुलट लो। उसे पता है कि इनसे सुलटेगा नहीं और सुलटता भी होगा तो हम सुलटने थोड़े ही देंगे। जिहाद (?) चल रहा है, चलता रहेगा। 
दज्जाल यही चाहता है।

Thursday, April 10, 2014

लिफ़्ट (कहानी) दूसरा भाग

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मेरी चेतना हल्के हल्के डूब रही थी। सीढ़ियों पर ढहते हुए मैंने देखा कि उस लड़की के मुंह से अब क़हक़हों के बजाय चीख़ें निकल रही थीं-‘हेल्प, हेल्प, प्लीज़ हेल्प, समवन हेल्प प्लीज़‘।
इंसान तड़पकर पुकारे और मदद न आए यह हो नहीं सकता। उसकी पुकार पर होटल के एक रूम से जो शख्स बाहर निकल कर आया वह एक चाइनीज़ था। उसके बाद एक एक करके और भी कई लोग निकल आए। उस चीनी आदमी ने फ़ौरन मेरे हाथ के दो तीन प्वांइट्स पर दबाव डाला और मेरी हालत नॉर्मल हो गई।
मैंने हैरानी से पूछा-‘यह क्या जादू है?’
चीनी आदमी ने कहा-‘दिस इज़ सु-जोक’।
मैं अपना लिबास दुरूस्त करते हुए खड़ा हुआ। मैंने उस चीनी आदमी का शुक्रिया अदा किया। उसने उस वक्त अपना पूरा नाम जो भी बताया था लेकिन अब उसमें से सिर्फ़ ‘वांग’ ही याद रह गया है। मिस्टर वांग अपने रूम की तरफ़ पलटे तो तमाम लोग भी उनके पीछे पीछे उनके रूम में ही दाखि़ल हो गए। सभी बीमार थे। आजकल दिल, गुर्दे और फेफड़ों की बीमारियां आम हैं और उनसे भी ज़्यादा मन के रोग। मन के रोग जितने जटिल होते हैं, इनका इलाज इतना ही आसान होता है।
लड़की की आंखों से पश्चात्ताप के आंसू टप टप ज़मीन पर गिर रहे थे। उसका मन धुल रहा था। वह सीढ़ियों के नीचे खड़ी थी और मैं चन्द सीढ़ियां ऊपर। उसने अपनी पलकें उठाकर मेरी तरफ़ क्षमा याचना के भाव से देखा। ...यानि कि वह सेहतमंद हो चुकी थी।
मैं मुस्कुराया और उसकी तरफ़ आगे बढ़कर मैंने उसे अपना कार्ड देते हुए कहा-‘हमारे घर आना। तुम्हें अपनी बेटियों से मिलवाऊंगा। उन्हें अपनी एक नई बहन से मिलकर बेहद ख़ुशी होगी।’
उसने ‘हां’ कहने के लिए अपनी गर्दन को हिलाया। मैं लिफ़्ट की तरफ़ बढ़ गया। मैंने मुड़कर देखा तो उसके होंठो पर मुस्कुराहट खेल रही थी जबकि उसकी आंखों में आंसू अभी भी फंसे हुए से थे मगर बहना बन्द हो चुके थे। मैंने अपनी जेब से रूमाल निकाल कर उसकी तरफ़ उछाल दिया। जो हवा में लहराता हुआ ठीक उसके चेहरे पर जा चिपका।
लड़की ने रूमाल को अपने सिर पर खींच लिया। लिफ़्ट के बन्द होते हुए दरवाज़े से मैंने उस लड़की का चेहरा देखा। उसका चेहरा अब मेरी बेटियों से मिल रहा था।

Monday, March 31, 2014

चाय के ठेले पर विकास पुरूष vikas purush

के बाद अब पेश है एक कहानी-
चाय का ठेले पर विकास पुरूष
अड्डू दादा आजकल आहत हैं। वैसे तो उनका नाम लालवाणी है लेकिन गांव में आधे लोग उन्हें नफ़रत से अड्डू कहकर पुकारते हैं। गांव पर वह किसी अड्डू से कम नहीं थे। बच्चे कांच की गोलियां खेलते हैं तो उसमें ग़लती हो जाए तो जुर्माना भरना पड़ता है। उस जुर्माने को गांव में अड्डू कहा जाता है। अड्डू दादा बंटवारे के समय सिंध से आकर इस गांव में बस गए थे। उनके बसने से बहुत लोग उजड़ गए थे।
मुग़ल दौर में किसी बादशाह ने गांव में एक मस्जिद बना दी थी। दस पांच मुसलमान उसमें नमाज पढ़ लेते थे। उसमें एक कुआं भी था। गांव के हिन्दुओं को कुआं पूजन की ज़रूरत पड़ती थी तो वे मस्जिद के कुएं को ही पूज लेते थे। मुसलमान भी कोई ऐतराज़ न करते थे। न मुसलमानों को पता था कि क़ुरआन में क्या लिखा है और न हिन्दुओं ने ही कभी वेद देखे थे। दोनों अपने हिसाब से एडजस्ट होकर अपनी ज़िन्दगी का जुगाड़ फ़रारी की तरह मज़े से चला रहे थे।
लालवाणी जी गांव में पधारे तो उन्हें यह सब बड़ा अजीब लगा कि बंटवारे में इतना ख़ून बहा लेकिन फिर भी हिन्दू मुस्लिम प्रेम ख़त्म नहीं हुआ। वह पढ़े लिखे थे। उन्होंने दो चार शास्त्र भी ख़ुद ही बांच लिए थे। विदुर नीति से लेकर चाणक्य नीति तक सब उन्हें कंठस्थ थी। हिटलर के तो वह फ़ैन ही थे। इतनी योग्यता पा लेने के बाद वह गांव से भाईचारे को ख़त्म करने का बीड़ा कैसे न उठाते?
एक शाम कुआं पूजन करते वक़्त किसी बच्ची के हाथ से गुड़िया कुएं में गिर गई। लालवाणी जी ने चाय नाश्ते का ठेला लगाने के लिए मस्जिद का चबूतर क़ब्ज़ा लिया था। अपने ठेले के लिए पानी वह मस्जिद के कुएं से ही लाते थे। अगले दिन सुबह वह पानी लेने पहुंचे तो उनके सामने एक नमाज़ी ने कुएं से पानी खींचा तो उसके डोल में पानी के साथ एक गुड़िया भी निकल आई। लालवाणी जी के शातिर दिमाग़ को फ़ौरन शैतानी सूझ गई। वह वहीं से चिल्लाते हुए भागे कि काली प्रकट हो गई, काली प्रकट हो गई।
गांव के बच्चे बड़े सब इकठ्ठा हो गए। इतने में वह बच्ची भी आ गई, जिसके हाथ से वह गुड़िया गिरी थी। वह मौक़ा देखकर चुपके से अपनी गुड़िया उठाकर रफ़ूचक्कर हो गई। अब जो गुड़िया ग़ायब देखी तो लालवाणी जी ने फिर शोर मचा दिया कि काली अंतर्धान हो गई, काली अंतर्धान हो गई।
गांव के लोगों में काली की पूजा का कोई ख़ास क्रेज़ नहीं था। लालवाणी जी ने इस वाक़ये की न्यूज़ बनाकर मीडिया को दे दी। मीडिया ने तिल का ताड़ बनाकर पेश किया। ख़बर बंगाल पहुंची तो वहां से लोग आना शुरू हो गए। किसी में श्रद्धा थी और कोई महज़ पिकनिक के लिए आ गया था।  
लालवाणी जी ने अपनी मेहनत की कमाई से काली की एक मूर्ति बाज़ार से ख़रीदी और उसे अपने ठेले के पास में बिना प्राण प्रतिष्ठा के ही स्थापित कर दिया। यह एक इन्वेस्टमेन्ट था। इसके बाद उन्हें भारी आमदनी होनी तय थी और हुई भी। वह दूर दराज़ से आने वाले श्रद्धालुओं को काली के प्रकट होने की कथा मिर्च मसाले लगाकर सुनाते। कुछ समय के बाद उन्होंने यह भी कहना शुरू कर दिया कि काली माता ने उन्हें सपने में दर्शन देकर एक भव्य मंदिर बनाने का आदेश दिया है। उन्होंने फ़्लैक्सी पर एक भव्य भवन का नक्शा बनवाकर अपने ठेले पर ही टांग दिया। अब लोग उन्हें चंदा भी देने लगे। उनके चाय नाश्ते की सेल पहले ही बढ़ चुकी थी।
राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी इनके काम में हाथ बंटाने लगे। जब ये छोटे थे तो ये सब लालवाणी जी के ठेले पर बर्तन धोया करते थे। अब ये बहती गंगा में हाथ धोने लगे। जस्सू चौधरी लालवाणी जी के पक्के यार थे। हालांकि वह पास के भूड़ गांव के थे लेकिन उनका दिन चाय के ठेले पर ही हंसते बतियाते बीतता था।

ठेले के आस पास के दुकानदारों की नाक में दम था। कभी उनकी दुकानों में धुआं आता था तो कभी जगह ख़ाली देखकर श्रद्धालु आ धमकते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही उनसे दुखी थे। कुछ ने तो अपनी दुकानें लालवाणी जी को औने पौने दामों में बेचकर अपनी जान की ख़ैर मनाई। श्रद्धालुओं की बढ़ती भीड़ देखकर मस्जिद के दो चार नमाज़ियों ने भी कुछ न करना ज़्यादा बेहतर समझा। थाने में शिकायत की ख़ानापूरी करके वे भी ख़ामोश रह गए।
लालवाणी जी देश भर में मशहूर हो गए। अब वे यात्राएं भी करने लगे थे। वे जहां भी जाते, वहीं प्रेम और भाईचारे का माहौल देखते। जिसे ख़त्म करने के लिए वे जी जान से जुटे हुए थे। उनकी यात्रा के बाद बहुत सी जगहों पर ख़न-ख़राबा और दंगा-फ़साद हुआ लेकिन अब उनका क़द इतना बड़ा हो चुका था कि क़ानून उन्हें सज़ा नहीं दे सकता था। दुनिया की अदालतें सज़ा हमेशा कमज़ोर को देती हैं। 
बहरहाल यात्राओं का दौर ख़त्म हुआ तो लालवाणी जी अपने गांव वापस लौटे। मन्दिर अब केवल कमाई का ज़रिया ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय गौरव का मुददा भी बन चुका था। पढ़े लिखे लोग जानते हैं कि धुआंधार प्रचार से कैसे एक काल्पनिक चीज़ को राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनाया जाता है। आजकल सत्ता पाने के लिए यही टोटके काम में आते हैं। देश के लिए काला पानी की सज़ा भुगतने वाले नेताओं और क्रांतिकारियों के नाम जनता ने याद नहीं रखे। ऐसे में ऐसी भुलक्कड़ जनता के लिए कोई क्यों मरे, ऐसी जनता की बलि देकर सत्ता का सुख क्यों न भोगे?
लालवाणी जी अब सत्ता का सुख भोगना चाहते थे। उन्होंने एक पुरानी मरियल सी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा। उनकी पार्टी जीती लेकिन गांव का प्रधान उनके बजाय कोई और बन गया। उन्होंने अपना नाम ख़ुद ही वेटिंग लिस्ट में डाल लिया। पड़ोस के रेतीले गांव से जस्सू चौधरी चुनाव जीत गए। अब वह धड़ाधड़ विदेश जाने लगे।
इसी दौरान एक नया बच्चा विकास चाय के ठेले के पर काम करने लगा। चाय बेचते बेचते वह बच्चे से पुरूष बन गया। सब उसे विकास पुरूष कहने लगे। वह नाम का ही विकास पुरूष न था बल्कि उसने वास्तव में ही बहुत विकास किया था। उसने चाय के ठेले को लालवाणी जी की ख़रीदी हुई दुकानों में ट्रांसफ़र करके उसे एक शानदार रेस्तरां का रूप दे दिया था।
पहले लालवाणी जी गांव के दूसरे लोगों की तरह कोयले इस्तेमाल करते थे लेकिन विकास पुरूष ने बाहर से गैस मंगवाई। जिसे देखकर गांव के लोगों ने भी गैस का इस्तेमाल शुरू कर दिया। गैस के व्यापारियों को विकास पुरूष के कारण एक नया बाज़ार हाथ आ गया था। विकास पुरूष ने मोबाईल और इंटरनेट का इस्तेमाल शुरू किया तो गांव के हर बुड्डे और जवान के हाथ में नई तकनीक आ गई। नई तकनीक का इस्तेमाल सही कम और ग़लत ज़्यादा हुआ। हॉलीवुड की पिक्चरें सरेआम और पोर्न पिक्चरें छिप छिपाकर देखी जाने लगीं। इससे पार्टनर की डिमांड क्रिएट हुई। डिमांड पैदा हुई तो पार्टनर का जुगाड़ भी गांव में ही होना शुरू हो गया। 
अब पिकनिक की भावना से आने वाले टूरिस्टों में भी पहले के मुक़ाबले बहुत इज़ाफ़ा हो गया। गांव की कुछ लड़कियां तो इन्हीं टूरिस्टों के साथ चली गईं। कुछ के पैर भारी हुए तो मां-बाप गांव से मुंह छिपाकर रात में निकल लिए। पहले किसी एकाध से भूल चूक हो जाती थी तो मां-बाप उसे ठिकाने लगाकर सुखऱ्रू होकर गांव में ही इज़्ज़त से रहते थे लेकिन अब इन लड़कियों का पूरा जत्था था। उन्हें इंटरनेट से नये नये क़ानूनों का अपडेट भी मिलता रहता था।
ऐसा नहीं है कि इनमें से हरेक के पैर भारी हुए ही थे। ज़्यादातर लड़कियां अपनी केयर करना जानती थीं। पूँजीपतियों ने इन लड़कियों को अपने प्रोडक्ट्स बेचने के साइन कर लिया। लड़कियों की लुभावनी अदाओं के साथ प्रोडक्ट्स का प्रचार हुआ तो सेल बढ़ गई। पूंजीपतियों को विकास पुरूष भा गया। यह सब उन्हें लालवाणी कहां दे पाए थे। वैसे भी अब लालवाणी उर्फ़ अड्डू दादा काफ़ी बूढ़े हो गए थे और उन्होंने ज़िन्दगी भर मन्दिर मुददे को भुनाने के सिवा कुछ और किया भी नहीं था। 
चुनाव क़रीब आए तो पूंजीपतियों ने ठान लिया कि इस बार गांव का प्रधान विकास पुरूष को ही बनाना है। उनकी नज़र गांव की सरकारी ज़मीन पर भी थी जो कि वहां स्कूल, पार्क और अस्पताल बनाने के लिए आवंटित की गई थी। पूंजीपति वहां अपनी फ़ैक्ट्रियां और मिलें खड़ी करना चाहते थे। इसके लिए वे किसानों की ज़मीनें भी हथियाना चाहते थे। उन्होंने विकास पुरूष का टी.वी., रेडियो और इन्टरनेट पर ऐसे ही प्रचार किया जैसे कि वे अपने प्रोडक्ट्स का करते थे।
प्रचार का असर रंग लाने लगा तो सबसे पहले अड्डू दादा का रंग उड़ा। वह प्रधान पद से अपनी दावेदारी छोड़ने को तैयार नहीं थे लेकिन आखि़रकार उन्हें छोड़नी ही पड़ी। पास के रेतीले गांव से जस्सू चौधरी को भी वह अपनी पार्टी का टिकट नहीं दिला पाए। जस्सू चौधरी को बुढ़ापे में निर्दलीय खड़ा होना पड़ा, महज़ अपनी आन बचाने के लिए। राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी को भी विकास पुरूष के सामने पानी भरने पर मजबूर होना पड़ा। अपनी पार्टी में सभी बंधक से होकर रह गए। हर अहम फ़ैसला विकास पुरूष लेने लगा। वह समझता था कि ऐसा करके वह गांव का प्रधान हो जाएगा।
जब अड्डू दादा ने देख लिया कि प्रधान पद तो मेरे हाथ से निकल ही गया तब उन्होंने तय किया कि वह विकास पुरूष को भी प्रधानमंत्री हरगिज़ न होने देंगे। ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने समर्थक राजू ठाकुर, जोशीला मनोहर, कालू टंडन और क्षमा दीदी वग़ैरह को बुलाकर एक ख़ुफ़िया मीटिंग की। इसके बाद जो हुआ वह एक लंबी कहानी है लेकिन कुल मिलाकर यह कि विकास पुरूष जीता तो सही लेकिन प्रधान पद मिला किसी और को। जीते लालवाणी जी भी हैं लेकिन अपमान के अहसास में जीत की ख़ुशी कहीं दब सी गई है। अलबत्ता उनके गुट के साथी विकास पुरूष का सबक़ सिखाकर ज़रूर अच्छा फ़ील कर रहे हैं।
जिन किसानों की ज़मीनें विकास पुरूष ने बहकाकर पूंजीपतियों को लगभग मुफ़त ही नाम करवा दी थीं। ज़मीन खोकर खाने के लिए किसानों को पैसे की ज़रूरत पड़ी तो उन्हें  पूंजीपतियों से भारी ब्याज पर क़र्ज़ लेना पड़ा। क़र्ज़ में दबकर किसी की पत्नी और किसी की बेटी को ब्याजख़ोर से दबना पड़ा और किसी को अपने गले में फंदा डालकर दुनिया से उठ जाना पड़ा। 
विकास पुरूष ने गांव के लिए जो कुछ किया है, उसे याद करके गांव के लोगों की आंखे भर आती हैं, आदर से नहीं बल्कि दर्द के मारे। लालवाणी जी भी कोठी में पड़े रोते रहते हैं। सोचते हैं कि जो सत्ता उनके हाथ ही नहीं आई, उसके लिए उन्होंने बेशुमार लोगों को मरवा दिया। अब अंत समय है। मरने के बाद पुण्य ही काम आना है और वह पाप के मुक़ाबले बहुत कम है। इसी वजह से अड्डू दादा आजकल आहत हैं।
विकास पुरूष आहत है या नहीं, हमें पता नहीं। किसी भाई बहन को उसका हाल चाल पता चले तो हमें भी बताना।

Tuesday, December 3, 2013

लिफ़्ट Lift



       आलीशान होटल की लिफ़्ट ऊपर से नीचे आकर रूकी तो अंदर से एक एक करके सभी निकले और चले गए। मैं इत्मीनान से उसमें दाखि़ल हो गया। मेरे पीछे पीछे लम्बे क़द की एक ख़ूबसूरत लड़की भी लिफ़्ट में आ गई। वह उम्र में मेरी छोटी बेटी जैसी थी लेकिन उसका लिबास मेरी बेटियों जैसा न था। उसने मिनी स्कर्ट से भी छोटा कुछ पहन रखा था और टॉप के नाम पर जो था, वह स्किन कलर में भी था और स्किन टाइट भी। अलबत्ता उसका गला ढीला था, जो उसकी छातियों पर पड़ा दायें बायें झूल रहा था। मुख्तसर यह कि उसका अन्दाज़ पूरी तरह अमेरिकन था। एक औरत जो कुछ छिपाना चाहती है, वह सब यह दिखा रही थी।
शायद उसने क़ानून के सम्मान के लिए ही कपड़े पहन रखे थे क्योंकि सार्वजनिक जगहों पर नंगा घूमना क़ानूनी तौर पर मना है। लिफ़्ट का बटन दबाने के लिए उसने अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने घबरा कर अपना हाथ रोक लिया। उसने अपनी मंज़िल का बटन दबाकर अपना सनग्लास माथे पर अटका लिया और फिर मेरी तरफ़ देखा। वह मेरे घबराए हुए चेहरे का बग़ौर मुआयना कर रही थी।
उसके बाल, बदन और लिबास से जो मुरक्कब ख़ुश्बू (मिश्रित सुगंध) उड़कर मेरी नाक में आ रही थी। वही मेरे बूढ़े दिल की धड़कनें बढ़ा रही थीं। इस पर यह कि उसने अपने पर्स से एक छोटी सी बॉटल निकाल कर एक घूंट भी पी ली। अब उसके मुंह से व्हिस्की की गंध भी आ रही थी। शराबी नशे में किसी भी हद तक जा सकता है और इसकी हद तो बेहद लग रही थी। मुझ पर बदहवासी तारी हो गई। ए.सी. के बावुजूद मेरी पेशानी पर पसीने के क़तरे नुमूदार हो गए। मैंने जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा साफ़ किया तो उसके चेहरे पर हल्की सी मुस्कान तैरने लगी।
उसकी मंज़िल आने में अभी कुछ वक्त और था। उसने वक्तगुज़ारी के लिए अपना पर्स खोलकर कुछ तलाश किया। इस तलाश में हर बार वह कोई न कोई चीज़ हाथ में लेकर बाहर निकालती। जिनकी बनावट देखकर और इस्तेमाल की कल्पना करके ही मेरी धड़कनें बेक़ाबू हो रही थीं। इस तलाश में उसने अपने काम की सारी चीज़ें एक एक करके मुझे दिखा दीं। शायद यही उसका मक़सद था।
उसका पर्सं भी इम्पोर्टेड था और उसकी चीज़ें भी। पर्स बंद करके उसने एक बार फिर मुझे मुस्कुरा कर देखा। मैं समझ गया कि वह मेरी हालत से लुत्फ़अन्दोज़ हो रही है। कभी कभी लम्हे कैसे सदियां बन जाते हैं, इसका अंदाज़ा मुझे आज हो रहा था।
उसकी मंज़िल पर लिफ़्ट रूकी तो मैं भी उसके पीछे पीछे ही लिफ़्ट से निकल आया। इस जैसी क़ातिल हसीना किसी भी मंज़िल से लिफ़्ट में फिर से दाखि़ल हो सकती थी। मैं दोबारा रिस्क नहीं लेना चाहता था। मैं उसके बराबर से निकला तो उसने बड़ी अदा के साथ अपने बाल समेटे और खुलकर एक क़हक़हा लगाया। मुझे अभी 5 मंज़िल और ऊपर जाना था। मैं सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ गया। होटल की सीढ़ियां लिफ़्ट के मुक़ाबले ज़्यादा सेफ़ होती हैं।
मैं बूढ़ा हूँ, दिल का मरीज़ हूँ। सीढ़िया चढ़ना मेरे लिए जानलेवा हो सकता है लेकिन फिर भी इज़्ज़त बचाने का यही एक तरीक़ा मुझे नज़र आया। वह मुझे सीढ़ियों पर चढ़ते देखकर और ज़्यादा ज़ोर से हंस रही है। उसकी नज़र के दायरे से निकलने के लिए मैं घबराकर तेज़ तेज़ क़दम उठा रहा हूँ। अचानक मुझे अपना दिल बैठता हुआ सा लग रहा है और मेरी चेतना डूबती जा रही है। पता नहीं अब कभी आंख खुलेगी या नहीं लेकिन मेरी इज़्ज़त बच गई है। मुझे ख़ुशी है कि मैं अपने दोस्तों, रिश्तेदारों और घरवालों की नज़र में शर्मिन्दा होने से बच गया हूँ।
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भारतीय नारी ब्लॉग पर हिन्दी ब्लॉगर शिखा कौशिक जी की लघुकथा ‘पुरूष हुए शर्मिन्दा’ पढ़कर हमें यह लघुकथा लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई है जो एक दूसरा पहलू भी सामने लाती है। इससे पता चलता है कि हमारे समाज में कितने रंग-बिरंगे व्यक्ति रहते हैं और यह कि न सभी पुरूष एक जैसे हैं और न ही सारी औरतें एक जैसी हो सकती हैं।

Friday, March 22, 2013

पीपल और खजूर, कब तक रहेंगे दूर ? peepal & khajoor


वह हरियाली की धरती है। वहां भरपूर पानी है। सर्दी, गर्मी और वसंत हरेक मौसम वहां है। कहीं रेगिस्तान होता है तो कहीं केवल चट्टानें और कहीं महज़ मैदान लेकिन वहां ये तीनों हैं। वहां नदियां भी हैं और उनका सनम समंदर भी। वह वाक़ई बड़ा अजीब देश है। वहां एक ही गांव में पीपल और खजूर एक साथ उगते हैं। वहां के लोग भी ऐसे ही हैं। खजूर वाले आदमी पीपल के नीचे बने चबूतरे पर बैठ जाते हैं और पीपल वाले आदमी खजूर पर चढ़ जाते हैं। गांव में पहले भी ऐसा था और आज भी ऐसा ही है। जिन्होंने गांव छोड़ दिए हैं। उनके मिज़ाज थोड़े बदल गए हैं। उनकी भी मजबूरी है। उन्हें तरक्क़ी करनी है। गांव का चलन शहर में भी बाक़ी रखते तो लोग उन्हें गंवार कहते।
गांव में आदमी ज़बान का पक्का होता है। शहर में आदमी काग़ज़ का पक्का होता है, ज़बान पर यहां कोई ऐतबार नहीं करता और कोई कर ले तो फिर वह ख़ुद ऐतबार के लायक़ नहीं रह जाता। इस देश की आत्मा गांवों में बसती है। शहर जाने के लिए लोगों ने गांव छोड़ा तो उन्होंने अपनी आत्मा भी वहीं छोड़ दी। पीपल वालों ने भी छोड़ दी और खजूर वालों ने भी छोड़ दी। यहां शहर वालों का मिज़ाज भी सबका एक है।
यहां के शहर भी अजीब हैं। यहां पीपल नहीं होता लेकिन उसकी याद में कुछ लोग शाखाएं लगा लिया करते हैं। कहते हैं कि हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं। 
कोई पूछ बैठे कि किससे कर रहे हैं तो कहते हैं कि खजूर वालों से !
शहर में कुछ हो या न हो लेकिन कम्प्टीशन बड़ा सख्त है। खजूर वाले भी कम्प्टीशन में हैं। खजूर में पीपल जैसी शाखाएं नहीं होतीं। सो वे शाखाएं तो नहीं लगा पाए। उन्होंने कैम्प लगा लिए। वे ट्रेनिंग देने लगे। कहते हैं कि हम अपनी रक्षा कर रहे हैं।
कोई पूछता है कि किस से कर रहे हो तो कहते हैं कि पीपल वालों से!
पीपल वाले सरकारी ओहदों पर हैं। छोटे से लेकर बड़े ओहदों तक सब जगह यही हैं। कहीं कहीं खजूर वाले भी हैं। पीपल वालों की पांचों उंगलियां तर हैं। खजूर वालों की बांछें तक तर नहीं हो पा रही हैं। ऊपर की कमाई के मामले में भी पीपल वाले ही ऊपर हैं। खजूर वाले भी ऊपर आना चाहते हैं। पीपल वाले उन्हें ऊपर नहीं आने देना चाहते। एक अच्छा ख़ासा संघर्ष चल रहा है। पीपल वालों ने इसे धर्मयुद्ध घोषित कर दिया है तो खजूर वाले इसे जिहाद से कम मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
इसी को राजनीति कहा जाता है। दोनों ही राजनीति कर रहे हैं। पीपल वाले कूटनीति भी कर लेते हैं। सो वे भारी पड़ जाते हैं। शहरों में यही सब चल रहा है। अब थोड़ा थोड़ा गांवों में भी शहरीकरण होता जा रहा है लेकिन फिर भी वहां आत्मा है। वहां अब भी शांति है। 
आज भी शहर वाले गांव पहुंचते हैं तो उनमें आत्मा लौट आती है। उनके मुर्दा ज़मीर ज़िंदा हो जाते हैं। थोड़ी देर के लिए वे इंसान बन जाते हैं। खजूर वाला फिर पीपल के चबूतरे पर जा बैठता है और पीपल वाले खजूरों पर ढेले फेंकने का सुख लेते हैं। जिसके हाथ जो लग जाए, उसी को लेकर ख़ुश हो जाते हैं। किसी के हाथ एक भी न लगे तो उसे ज़्यादा वाला अपनी खजूरों में से दे देता है।
यह वाक़ई अजीब धरती है। यहां स्वर्ग की सी शांति है। यहां ईश्वर मिलता है। सारी दुनिया से लोग यहां ईश्वर को ढूंढने आते हैं। जिन्हें ईश्वर नहीं मिलता। प्रेम उन्हें भी मिल जाता है। यहां रिश्ते स्थायी हैं। मरने के बाद तक की बुकिंग एडवांस में रहती है। रिश्ते सबसे बड़ी दौलत हैं। रिश्तों का प्यार सचमुच सबसे बड़ी दौलत है। हर रिश्ते का यहां अलग नाम है। जिस रिश्ते का दुनिया में कोई नाम न होगा, यहां उसका भी अलग नाम होगा। दुनिया का सबसे बड़ा दौलतमंद देश यही है।
यहां हर आदमी दौलतमंद है। दौलतमंद लोगों के पीछे लुटेरे लग ही जाते हैं। यहां के लोगों के पीछे भी लुटेरे लगे हुए हैं। यहां के लोग ख़तरे में जी रहे हैं। लुटेरे भी अपने ही हैं। इसीलिए लोग ख़ामोश हैं। यहां अपनाईयत बहुत है। लुटेरे अपने हों तो वे उन्हें भी कुछ नहीं कहते।
यह अपनाईयत देखकर आंखें नम हो जाती हैं। यहां इसी नमी की ज़रूरत है। अल्लामा इक़बाल ने भी कहा है कि
‘ज़रा नम हो तो ये मिट्टी बड़ी ज़रख़ेज़ है साक़ी‘
मिट्टी सचमुच अच्छी है, बस एक साक़ी चाहिए।
अल्लामा इक़बाल ने ये भी कहा था कि 
‘यह दौर अपने बराहीम की तलाश में है‘
इबराहीम (अ.) के नाम में से ‘इ‘ हटाकर उन्होंने ‘बराहीम‘ कहा तो ब्रहमा का गुमान हो जाता है। सब इन्हें अपना बड़ा मानते हैं और बहुत बड़े बड़ों के ये सचमुच ही बाप हैं। इनका घर आंगन बहुत बड़ा है। पीपल भी इनका है और खजूर भी इनकी ही है। इन्हीं के कुम्भ में अमृत रहता है। जिसके पास भी आज अमृत है। उसे वह इन्हीं के कुम्भ से मिला है। 
इस मिट्टी को अमृत से ही नम होना है। अमृत कुम्भ में छिपाया गया है। वास्तव में परमेश्वर का सबसे गोपनीय नाम ही अमृत है। उस नाम का अंतिम अक्षर ‘ह‘ है और कुम्भ के ‘भ‘ (ब+ह) में यही अक्षर छिपा है। यह रहस्य हमेशा रहस्य नहीं रहेगा। पीपल हमेशा खजूर से दूर नहीं रहेगा।

Monday, March 11, 2013

यमराज का प्रेग्नेंसी टेस्ट -आलोक पुराणिक


एनबीटी की एक रिपोर्ट ने बताया कि मेडिकल टेस्टों के नाम पर कैसी-कैसी धांधली चल रही है। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है।
एक वक्त था, जब यमराज धरती पर सशरीर अपने भैंसे के साथ आते थे। अब नहीं आते। इस संबंध में शोध करने पर यह कहानी सामने आई है।
कुछ समय पहले यमराज ऊपर डेथ स्टैटिस्टिक्स चेक कर रहे थे, ज्यादातर लोग किसी बीमारी से नहीं, सदमे से मरे पाए गए। यमराज ने आत्माओं से तफतीश की तो पता चला कि महंगे अस्पतालों, क्लिनिकों में बीमार होकर पहुंचते हैं, तो वो इत्ते महंगे टेस्ट करवाते हैं कि टेस्टों में खर्च रकम देखकर ही मरीज सदमे में मर लेता है।

यमराज ने खुद जंबूद्वीपे, भारत खंडे में खुद आकर तफतीश करने की सोची।
दिल्ली के टॉपमटॉप फाइव-स्टार अस्पताल में यमराज घुसे और बोले ब्लड प्रेशर चेक करवाना है।
डॉक्टर ने ब्लड-प्रेशर छोड़कर सब चेक किया और टेस्ट लिखे- एमआरआई, पूरे ब्रेन का टेस्ट, यूरिन टेस्ट, हीमॉग्लोबिन टेस्ट, कैंसर टेस्ट, टीबी टेस्ट, हड्डियों में फास्फोरस टेस्ट, आई टेस्ट, प्रेग्नेंसी टेस्ट....। कंसेशनल रेट पर सिर्फ 7 लाख 47 हजार रुपये जमाकर मिलें मुझसे।

यमराज हिल गए, बोले- सिंपल बीपी टेस्ट करो।
यमराज ने डॉक्टर को सेट किया इस आश्वासन पर कि स्विटजरलैंड में एक बड़ी मेडिकल कॉन्फ्रेंस हो रही है, वहां फ्री में आना-जाना और पांच लाख रुपये का पारिश्रमिक जमवा दूंगा। तू ये बता इत्ते टेस्ट काहे को?
डॉक्टर बोला- प्रेग्नेंसी टेस्ट, एमआरआई टेस्ट की नई मशीन आई है। उसमें जो इनवेस्टमेंट लगा है, वो कैसे रिकवर होगा।
यमराज बोले- भगवन मेरे केस में प्रेग्नेंसी का क्या मतलब है?
डॉक्टर बोला- होने को कुछ भी हो सके। साइंस में नई-नई चीजें आ रही हैं। फिर इनवेस्टमेंट भी तो रिकवर करना है।
यमराज धराशायी हुए।
डॉक्टर बोला- सोच रहा हूं कि ये टेस्ट आपके भैंसे के लिए भी रिकमंड कर दूं। इनवेस्टमेंट भी तो रिकवर करना है।
यमराज कांपे।
डॉक्टर बोला- होने को तो कुछ भी हो सके, भैंसे के टेस्ट भी बनते हैं।
उस हादसे के बाद यमराज जंबूद्वीपे, भारतखंडे से इतना डर गए हैं कि यहां सशरीर न दिखते कभी।

Sunday, March 3, 2013

हीरामन की चौथी क़सम -Sudheesh Pachauri, हिंदी साहित्यकार

हीरामन ने हताश होकर चौथी कसम खाई कि अब किसी हीरा बाई की कहानी को ठीक नहीं करेंगे। इतनी मेहनत की और हीरा बाई ने थैंक्यू तक न कहा। हमने उसे बनाया, लेकिन उस थैंकलेस ने एक बार हमारा जिक्र नहीं किया। हम न होते, तो वह आज कहां होती? नाम कमा लिया, तो नजरें फेर लीं! कसम खाते हैं कि आगे से कभी किसी हीरा बाई को कथाकार नहीं बनाएंगे!

रेणु की तीसरी कसम  कहानी में तीसरी कसम खाकर हीरामन स्टेशन से बाहर निकले। घर आए। गाड़ी चलाना छोड़ लेखनी चलाने लगे। कथाकार हुए। साहित्य के ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ के अनुकूल सभी देवताओं को पूजा चढ़ाई। संपादक साधे। आचार्यों को प्रसन्न किया। इनाम झटके। चर्चा होने लगी। नाम चलने लगा। इनाम टपकते रहे। अकादमी पर टकटकी लगी।

हीरामन भोले थे। गंवई थे। उपकारी थे। रचनाकार थे। चेलों से ज्यादा चेलियां पसंद थीं। चेली देखते ही कहते कि तुम में प्रतिभा है, लेकिन सही मार्गदर्शन जरूरी है। हमें गुरु मानो। हम बतावेंगे कि किस तरह लिखा जाता है। एक दिन हम तुम्हें लेखिका बना देंगे। साहित्य की बयार स्त्रियों की ओर बहती थी। चेलियां चंट थीं। वे हिसाब लगातीं कि हीरा गुरु साहित्य में जिस तिस से जुड़ा है। दिल्ली वाले बड़े-बड़े नाम उसकी मानते हैं। वह अलेखिकाओं को लेखिका बना सकता है, मैं तो लेखिका हूं।
हर शहर में संभावनावान लेखिकाएं होती हैं। हर शहर में एक-दो हीरामन हुआ करते हैं। सबको साहित्य की गाड़ी चलाने वाला एक ठो गाड़ीवान चाहिए। बिना एक हीरामन के साहित्य की गाड़ी आगे नहीं बढ़ती। हीरामनों की डिमांड बनी रहती है। हीरामन सब टोटके जानते थे। बिना खर्चा के साहित्य में चर्चा नहीं होती। आसामी देखते, तो कैश की डिमांड बढ़ा देते और आसामिन हुई, तो यों ही कृपालु हो उठते। हिंदी में लेखिकाओं के घोर अकाल को देख वह लेखिका बनाने का अपना ऐतिहासक कर्तव्य निभाने चले थे।
उन्होंने ‘नई कहानी’ का ‘द विंसी कोड’ पढ़ रखा था, जो कहता था कि हर लेखक के पीछे एक पत्नी के अलावा एक लेखिका (प्रेमिका) जरूरी होती है। ऐसी ही किसी शुभ घड़ी में उनके पास एक संभावनाशील लेखिका आई। आप हमारी कथा देख लें, यह विनती की। साहित्य की अनजान नगरी में हम नई हैं। आप सर्वज्ञ हैं। हमारी कथा ठीक न लगे, तो ठीक कर दें। हीरामन ने बड़ी मेहनत से कथा करेक्ट की। इतनी  तो कभी अपनी करेक्ट न कर सके। लेखिका को प्रकाशक मिल गए। कथा प्रकाशित हो गई और देखते-देखते लेखिका का नाम फैल गया। हर पत्रिका में रिव्यू हो गया। हीरामन की कल्पना से भी स्वतंत्र शक्तियां साहित्य में सक्रिय हो उठीं। सब गुण ग्राहक थे। इनाम-इकराम की बातें फैलने लगीं। लेखिका आजाद हो गई। पंख फैलाने लगी।
हीरामन निराशा में डूब गए। बदले की कार्रवाई में उनका मर्द जाग गया। फिल्मी हीरो की तरह कहने लगे: इतना घमंड? हम बना सकते हैं, तो मिटा भी सकते हैं। कसम खाते हैं कि अब कभी किसी हीरा बाई को लेखिका नहीं बनाएंगे! हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है,  हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था? मैंने बनाया है उसे लेखिका!’ ऐसे स्त्री-विरोधी वातावरण में अगर कोई लेखिका दुर्दमनीय हो साहित्य में निकल पड़ती है, तो उसकी जय बोलने का मन करता है..।
साभार दैनिक हिन्दुस्तान दिनांक 3 मार्च 2013
Source : 

हिंदी में स्त्रियों का अपना पक्ष ज्यों ही आजाद होता है, हीरामनों का मर्दवाद कह उठता है, ‘उसे क्या आता था ? (व्यंग्य)-Sudheesh Pachauri