ध्यानी बहुत हिम्मत वाला था और ज्ञानी भी। वह जान चुका था कि जगत मिथ्या है और रिश्ते माया का बंधन। उसने कड़ी साधना की और अब वह मान-अपमान के भावों से ऊपर उठ चुका था। सभी दर्शन उसके नित्य व्यवहार में समा चुके थे। वंश चलाने के लिए उसने विवाह तो कर लिया लेकिन उसके विचारों में कोई परिवर्तन न आया।
एक रोज़ वह अपनी नई नवेली पत्नी सत्या को साथ लेकर ससुराल पहुंचे तो बस से उतरते-उतरते रात हो गई और बस स्टैंड पर कोई रिक्शा वग़ैरह भी न था। घर वहां से 2 किमी. दूर था। रास्ता कम करने के लिए ध्यानी जी बाग़ से होकर गुज़रने लगे तो ज़ेवरों से लदी उनकी पत्नी डरते-डरते बोली -‘कहां जाते हो जी, कोई गुंडा बदमाश मिल गया तो ?’
‘अरे मूर्ख, अल्पविश्वासी स्त्री ! क्या तू नहीं जानती कि तू किसके साथ जा रही है ?‘-ध्यानी जी ने अपनी भोली पत्नी को लताड़ा।
‘किसके साथ जा रही हूं मैं ?‘-वह सचमुच ही भोली थी।
‘अपने पति के साथ, जो किसी भी चीज़ से नहीं डरता। तू भी निर्भय होकर चल।‘-ध्यानी जी ने आत्मविश्वास के शिखर से कहा।
‘आपको भला डर क्यों नहीं लगता ?‘-पत्नी ने उत्सुकता से पूछा तो रास्ता काटने की ग़र्ज़ से ध्यानी ने उसे बताना शुरू किया-‘क्योंकि मैं जान चुका हूं।‘
‘आप क्या जान चुके हैं ?‘-भोली ने बड़े भोलेपन से पूछा।
‘जो तू नहीं जानती।‘-ध्यानी ने फिर बताया।
‘मैं क्या नहीं जानती स्वामी।‘
‘शाश्वत सत्य, विधि का विधान और प्रकृति का नियम। इनमें से तू कुछ भी नहीं जानती।‘
‘आप बताएंगे तो मैं भी जान ही जाऊंगी स्वामी।‘
‘तो सुन। जो कुछ है सब एक ब्रह्म ही है। सारी सृष्टि में वही व्याप रहा है, वही भास रहा है। यह अलग है वह अलग है, यह भला है वह बुरा है। यह सब मन का वहम और दिमाग़ का फ़ितूर है। हम यहां वही काट रहे हैं जो हमने पिछले जन्मों में किया है। यहां जो भी हुआ अच्छा हुआ और जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। सब कुछ प्रारब्ध और संचित कर्मों का फल है जो भोगे बिना क्षीण नहीं हो सकता।‘-ध्यानी ने ज्ञान के मोती अपनी पत्नी पर लुटाने शुरू कर दिए।
‘स्वामी क्या कर्मों के फल से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है ?‘
‘है क्यों नहीं लेकिन जो उपाय है, उसे करना हरेक के बस में नहीं है। कर्म करते समय उसमें लिप्त न होओ और अपने आस-पास की घटनाओं को भी मात्र साक्षी भाव से देखो। अपने अहं को शून्य कर लो, मानो कि तुम हो ही नहीं। अपने मन को हरेक बंधन और हरेक भाव से मुक्त कर लो तो फिर कर्मों के फल से ही नहीं जन्म-मरण के चक्र से भी मुक्ति मिल जाएगी।‘-ध्यानी ने अपनी पत्नी को बताया और अभी वह कुछ और भी बताने जा रहा था कि अंधेरे में से एक-एक करके 5 हट्टे-कट्टे बदमाश अचानक ही प्रकट हो गए। उनके चेहरे भी ठीक से नज़र नहीं आ रहे थे।
‘दर्शन नाम है मेरा, दर्शन, समझा क्या ? यहां अपना राज चलता है।‘-एक ग़ुंडे ने अपना चाक़ू ध्यानी की गर्दन पर रखकर उसे डराना चाहा लेकिन ध्यानी की आंखों में डर का कोई भाव न आया। वास्तव में ही वह सिद्धि पा चुका था।
‘तू यहीं रूक।‘-ग़ुंडे ने उससे कहा और उसके चारों तरफ़ अपने चाक़ू से एक गोल घेरा खींच दिया।
‘ख़बरदार, जो इस घेरे से अपना पैर बाहर निकाला तो ...।‘-ग़ुंडे ने उसे धमकाया लेकिन वह साक्षी भाव से सारी घटना को देखता रहा और सोचता रहा कि जो भी हो रहा है अच्छे के लिए ही हो रहा है। वह वहीं खड़ा रहा और फिर पांचों ग़ुंडों ने उसकी पत्नी को वहीं दबोच लिया, बिल्कुल उसके सामने ही। उसकी पत्नी चिल्लाई, रोई और गिड़गिड़ाई लेकिन उन ग़ुंडों को उस पर कोई तरस न आया और न ही ध्यानी ने बदमाशों का विरोध किया। ज्ञानियों के रहते जो हश्र भारत का हुआ, वही सत्या का भी हुआ, ध्यानी के सामने ही। एक-एक मिनट उसे एक-एक सदी जैसा लग रहा था और घंटे भर बाद जब पांचों ने उसे छोड़ा तो उसे ऐसा लगा जैसे कि उसे पांच हज़ार साल बीत चुके हों। रोते-सिसकते हुए उसने अपने बाल और अपने कपड़े दुरूस्त किए और फिर लड़खड़ाते हुए वह एक पेड़ का सहारा लेकर खड़ी हो गई। तभी एक ग़ुंडे ने सत्या के ज़ेवर उतारने शूरू कर दिए।
‘नहीं उसके ज़ेवर मत लूटो बेवक़ूफ़।‘-दर्शन ने उसके सिर पर चपत जमा कर कहा।
‘क्यों उस्ताद ?‘-उसके चमचे ने पूछा।
‘ज़ेवर औरत की जान होती है मूरख। उसके बिना वह मर जाएगी।‘-उसने राज़ की बात बताई।
‘आप कितने दयालु हैं उस्ताद ! जय हो।‘-चेला नारा लगाते हुए पीछे हट गया और एक-एक करके वे पांचों फिर अंधेरे में ही समा गए।
उनके जाने के बाद सत्या दौड़कर ध्यानी से लिपट गई और दहाड़ें मार मारकर रोने लगी। अचानक ही ध्यानी ठहाके लगाकर हंसने लगा। वहां अजीब मंज़र था, पत्नी बुरी तरह रो रही थी और उसका पति बेतहाशा हंसे जा रहा था। ध्यानी इसी हाल में अपनी पत्नी को सहारा देकर बाग़ से बाहर ले आया।
रास्ते में जूस की दुकान नज़र आई तो ध्यानी उस पर रूक गया। यह दुकान अल्बर्ट पिंटो की थी। ध्यानी ने अल्बर्ट को जूस बनाने के लिए कहा, तब तक सत्या भी कुछ आपे में आ गई थी। उसे हैरत थी कि उसके पति ने उसे बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया और फिर जब वह रो रही थी तब भी वह हंसे जा रहा था। आखिर उसने पूछ ही लिया-‘आप इतना हंस क्यों रहे थे ?‘
‘मैंने, अकेले ने पांच-पांच ग़ुंडों को मूरख बना दिया। बड़ा घमंड दिखा रहे थे अपनी ताक़त का लेकिन उन्हें पता भी नहीं चला।‘-ध्यानी ने अपने हुनर की तारीफ़ की।
‘आपने ग़ुडों को कब और कैसे मूरख बना दिया ?‘-सत्या हैरान थी।
‘सत्या ! तुम्हें याद है कि दर्शन ने मुझे धमकी दी थी कि मैं घेरे से पैर बिल्कुल भी बाहर न निकालूं ?‘-ध्यानी ने पूछा।
‘हां, उसने कहा तो था।‘
‘बस, जब वे सारे तुम्हारे पास थे तो मैंने चुपके-चुपके कई बार अपना पैर घेरे से बाहर निकाला था और उन मूरखों को कुछ भी पता न चला। मैं इसीलिए हंस रहा था।‘-ध्यानी ने बताया और सत्या ने सुनकर अपना माथा पीट लिया।
एक रोज़ वह अपनी नई नवेली पत्नी सत्या को साथ लेकर ससुराल पहुंचे तो बस से उतरते-उतरते रात हो गई और बस स्टैंड पर कोई रिक्शा वग़ैरह भी न था। घर वहां से 2 किमी. दूर था। रास्ता कम करने के लिए ध्यानी जी बाग़ से होकर गुज़रने लगे तो ज़ेवरों से लदी उनकी पत्नी डरते-डरते बोली -‘कहां जाते हो जी, कोई गुंडा बदमाश मिल गया तो ?’
‘अरे मूर्ख, अल्पविश्वासी स्त्री ! क्या तू नहीं जानती कि तू किसके साथ जा रही है ?‘-ध्यानी जी ने अपनी भोली पत्नी को लताड़ा।
‘किसके साथ जा रही हूं मैं ?‘-वह सचमुच ही भोली थी।
‘अपने पति के साथ, जो किसी भी चीज़ से नहीं डरता। तू भी निर्भय होकर चल।‘-ध्यानी जी ने आत्मविश्वास के शिखर से कहा।
‘आपको भला डर क्यों नहीं लगता ?‘-पत्नी ने उत्सुकता से पूछा तो रास्ता काटने की ग़र्ज़ से ध्यानी ने उसे बताना शुरू किया-‘क्योंकि मैं जान चुका हूं।‘
‘आप क्या जान चुके हैं ?‘-भोली ने बड़े भोलेपन से पूछा।
‘जो तू नहीं जानती।‘-ध्यानी ने फिर बताया।
‘मैं क्या नहीं जानती स्वामी।‘
‘शाश्वत सत्य, विधि का विधान और प्रकृति का नियम। इनमें से तू कुछ भी नहीं जानती।‘
‘आप बताएंगे तो मैं भी जान ही जाऊंगी स्वामी।‘
‘तो सुन। जो कुछ है सब एक ब्रह्म ही है। सारी सृष्टि में वही व्याप रहा है, वही भास रहा है। यह अलग है वह अलग है, यह भला है वह बुरा है। यह सब मन का वहम और दिमाग़ का फ़ितूर है। हम यहां वही काट रहे हैं जो हमने पिछले जन्मों में किया है। यहां जो भी हुआ अच्छा हुआ और जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। सब कुछ प्रारब्ध और संचित कर्मों का फल है जो भोगे बिना क्षीण नहीं हो सकता।‘-ध्यानी ने ज्ञान के मोती अपनी पत्नी पर लुटाने शुरू कर दिए।
‘स्वामी क्या कर्मों के फल से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है ?‘
‘है क्यों नहीं लेकिन जो उपाय है, उसे करना हरेक के बस में नहीं है। कर्म करते समय उसमें लिप्त न होओ और अपने आस-पास की घटनाओं को भी मात्र साक्षी भाव से देखो। अपने अहं को शून्य कर लो, मानो कि तुम हो ही नहीं। अपने मन को हरेक बंधन और हरेक भाव से मुक्त कर लो तो फिर कर्मों के फल से ही नहीं जन्म-मरण के चक्र से भी मुक्ति मिल जाएगी।‘-ध्यानी ने अपनी पत्नी को बताया और अभी वह कुछ और भी बताने जा रहा था कि अंधेरे में से एक-एक करके 5 हट्टे-कट्टे बदमाश अचानक ही प्रकट हो गए। उनके चेहरे भी ठीक से नज़र नहीं आ रहे थे।
‘दर्शन नाम है मेरा, दर्शन, समझा क्या ? यहां अपना राज चलता है।‘-एक ग़ुंडे ने अपना चाक़ू ध्यानी की गर्दन पर रखकर उसे डराना चाहा लेकिन ध्यानी की आंखों में डर का कोई भाव न आया। वास्तव में ही वह सिद्धि पा चुका था।
‘तू यहीं रूक।‘-ग़ुंडे ने उससे कहा और उसके चारों तरफ़ अपने चाक़ू से एक गोल घेरा खींच दिया।
‘ख़बरदार, जो इस घेरे से अपना पैर बाहर निकाला तो ...।‘-ग़ुंडे ने उसे धमकाया लेकिन वह साक्षी भाव से सारी घटना को देखता रहा और सोचता रहा कि जो भी हो रहा है अच्छे के लिए ही हो रहा है। वह वहीं खड़ा रहा और फिर पांचों ग़ुंडों ने उसकी पत्नी को वहीं दबोच लिया, बिल्कुल उसके सामने ही। उसकी पत्नी चिल्लाई, रोई और गिड़गिड़ाई लेकिन उन ग़ुंडों को उस पर कोई तरस न आया और न ही ध्यानी ने बदमाशों का विरोध किया। ज्ञानियों के रहते जो हश्र भारत का हुआ, वही सत्या का भी हुआ, ध्यानी के सामने ही। एक-एक मिनट उसे एक-एक सदी जैसा लग रहा था और घंटे भर बाद जब पांचों ने उसे छोड़ा तो उसे ऐसा लगा जैसे कि उसे पांच हज़ार साल बीत चुके हों। रोते-सिसकते हुए उसने अपने बाल और अपने कपड़े दुरूस्त किए और फिर लड़खड़ाते हुए वह एक पेड़ का सहारा लेकर खड़ी हो गई। तभी एक ग़ुंडे ने सत्या के ज़ेवर उतारने शूरू कर दिए।
‘नहीं उसके ज़ेवर मत लूटो बेवक़ूफ़।‘-दर्शन ने उसके सिर पर चपत जमा कर कहा।
‘क्यों उस्ताद ?‘-उसके चमचे ने पूछा।
‘ज़ेवर औरत की जान होती है मूरख। उसके बिना वह मर जाएगी।‘-उसने राज़ की बात बताई।
‘आप कितने दयालु हैं उस्ताद ! जय हो।‘-चेला नारा लगाते हुए पीछे हट गया और एक-एक करके वे पांचों फिर अंधेरे में ही समा गए।
उनके जाने के बाद सत्या दौड़कर ध्यानी से लिपट गई और दहाड़ें मार मारकर रोने लगी। अचानक ही ध्यानी ठहाके लगाकर हंसने लगा। वहां अजीब मंज़र था, पत्नी बुरी तरह रो रही थी और उसका पति बेतहाशा हंसे जा रहा था। ध्यानी इसी हाल में अपनी पत्नी को सहारा देकर बाग़ से बाहर ले आया।
रास्ते में जूस की दुकान नज़र आई तो ध्यानी उस पर रूक गया। यह दुकान अल्बर्ट पिंटो की थी। ध्यानी ने अल्बर्ट को जूस बनाने के लिए कहा, तब तक सत्या भी कुछ आपे में आ गई थी। उसे हैरत थी कि उसके पति ने उसे बचाने के लिए कुछ भी नहीं किया और फिर जब वह रो रही थी तब भी वह हंसे जा रहा था। आखिर उसने पूछ ही लिया-‘आप इतना हंस क्यों रहे थे ?‘
‘मैंने, अकेले ने पांच-पांच ग़ुंडों को मूरख बना दिया। बड़ा घमंड दिखा रहे थे अपनी ताक़त का लेकिन उन्हें पता भी नहीं चला।‘-ध्यानी ने अपने हुनर की तारीफ़ की।
‘आपने ग़ुडों को कब और कैसे मूरख बना दिया ?‘-सत्या हैरान थी।
‘सत्या ! तुम्हें याद है कि दर्शन ने मुझे धमकी दी थी कि मैं घेरे से पैर बिल्कुल भी बाहर न निकालूं ?‘-ध्यानी ने पूछा।
‘हां, उसने कहा तो था।‘
‘बस, जब वे सारे तुम्हारे पास थे तो मैंने चुपके-चुपके कई बार अपना पैर घेरे से बाहर निकाला था और उन मूरखों को कुछ भी पता न चला। मैं इसीलिए हंस रहा था।‘-ध्यानी ने बताया और सत्या ने सुनकर अपना माथा पीट लिया।
अल्बर्ट पिंटो भी ज़्यादा दूर नहीं था। सत्या का हाल देखकर अंदाज़ा तो उसे भी हो गया था कि उस पर क्या बीती होगी लेकिन अब उसने सब कुछ सुन भी लिया था और उसके दिमाग़ की नसों में तनाव और ग़ुस्सा समाने लगा। ध्यानी विजयी मुस्कान के साथ जूस पीने लगा और अल्बर्ट पिंटो को भरपूर ग़ुस्सा आने लगा। (...जारी)
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इस कहानी की पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें :
8 comments:
लेखनी का कमाल दिखाई दे रहा है जमाल साहब
लेखनी का कमाल दिखाई दे रहा है जमाल साहब
बहुत बेवक़ूफ़ बंदा था यह...
aapki lekhni ka jaadu..kamaal Anwer jamal ji.
kya koi iss hadd tak bewakoof ho sakta hai..ufffffffff aisepati ki patni hone se vudhwa hona behtar..:(
kya koi iss hadd tak bewakoof ho sakta hai..ufffffffff aisepati ki patni hone se vudhwa hona behtar..:(
सच्चाई से परिपूर्ण एक कहानी । लोग समाज और धर्म की कुरीतियोँ के नाम पर क्या कर रहें हैं आपने सटीक लेखन से बयान किया । अगली किस्त का इंतजार रहेगा ।
आधा ग्यान महा कल्याण
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